ठौर ना पाया मिठासों ने…

कौन कहता है नदी सागर को प्यारी हो गई ठौर ना पाया मिठासों ने तो खारी हो गईं रेशा-रेशा खिर गई जब भी तो इक झरना बना पत्थरों ने गोद में लेकर कहा- ‘मरना मना’ सिर झुकाकर बढ़ चली पर चाल भारी हो गई ठौर ना पाया मिठासों ने तो खारी हो गईं घाट तक पहुँची, उलझ कर रह गई संसार में गाँव-गलियों, मरघटों, नहरों, नलों, घर-बार में उफ़ बिना मतलब ही खेतों की उधारी हो गई ठौर ना पाया मिठासों ने तो खारी हो गईं बांध ने बंदी बनाया, शहर ने शोषण किया आस्थाओं ने लहू लेकर भरण-पोषण किया कारख़ानों ने छुआ, घातक बिमारी हो गई ठौर ना पाया मिठासों ने तो खारी हो गईं © Chirag Jain : चिराग़ जैन pollution